" अथ दामोदर दास हरसानी की वार्ता "
एह समय की बात हे कि श्री आचार्यजी महाप्रभु ने पृथ्वी की परिक्रमा करने हेतु प्रस्थान किया, उनके साथ दामोदर दास भी थे, श्री आचार्यजी महाप्रभु अपने श्री मुख से, दामोदर दास को दमला नाम से पुकारते थे | श्री आचर्य जी ने दमला से कहा - " यह पुष्टिमार्ग तुम्हारे लिए प्रकट किया हे |"
एक दिन श्री आचार्यजी गोविन्द घाट पर अवस्थित चबूतरे पर विराजमान थे, उसी समय उनके मन में विचार आया, " श्री ठाकुरजी ने हमें जीवों को 'ब्रह्म सम्बन्ध' कराने की आज्ञा की हे, जीव तो दोषवान हे और श्री पुरुषोत्तम तो गुण निधान हे, इस प्रकार दोषयुक्त जीव का गुण निधान श्री ठाकुरजी से सम्बन्ध होना कैसे सम्भव हो सकता हे?" इस चिन्ता से अभिभूत होकर श्री आचार्यजी बहुत आतुर हुए उसी समय श्री ठाकुरजी प्रगट हो गए और श्री आचार्यजी महाप्रभु से पूछा कि आप चिन्तातुर क्यों हो रहे हो? श्री आचार्यजी महाप्रभु ने कहा - "आप स्वयं जानते है कि जीव तो दोस्वन हे अतः उस जीव का आपसे सम्बन्ध होना कैसे सम्भव है?" श्री ठाकुरजी ने उन्हें आस्वस्त किया - "तुम जिन जीवों को ब्रह्म सम्बन्ध कराओगे उनको मैं अंगीकार करूँगा, तुम जीवो को 'नाम-दान' करोगे उनके समस्त दोष निवृत्त हो जायेंगे |"
यह प्रसंग श्रावण शुक्ला एकादशी को अर्धरात्रि में चरितार्थ हुआ | प्रातः काल द्वादशी के दिन श्री आचार्यजी महाप्रभु ने श्री ठाकुरजी को सूत की पवित्रा धारण कराई और मिश्री का भोग रखा | उन्ही अक्षरों के अनुसार श्री आचार्यजी महाप्रभु ने 'सिध्धांत-रहस्य' नामक ग्रन्थ की रचनाकी | प्रमानार्थ श्लोक है-
श्रावणस्यामले पक्षे एकादश्यां महानिशि |
साक्षाद् भगवता प्रोक्तं, तदक्षरशउच्यते ||
[ श्रावण शुक्लपक्ष कि महानिश (अर्धरात्रि) में साक्षाद् भगवान् ने जो आज्ञा की है उन्हें अक्षरशः कहा जाता है |]
उस समय श्री आचार्यजी महाप्रभु ने दमला से पूछा - "तुमने कुछ सुना?" तब दामोदर दास ने विनय पूर्वक कहा - " मैने वचन तो सुने किन्तु मैं कुछ समझा नहीं |" तत्काल ही श्री महाप्रभु ने कहा - " श्री ठाकुरजी ने मुझे आदेशित किया है, कि जिन जीवो को हम ब्रह्म सम्बन्ध कराएँगे उनको वे अंगीकार करेंगे और जीवों के सकल दोष निवृत्त हो जायेंगे | अतः ब्रह्म सम्बन्ध कराना आवश्यक है |"
एह समय की बात हे कि श्री आचार्यजी महाप्रभु ने पृथ्वी की परिक्रमा करने हेतु प्रस्थान किया, उनके साथ दामोदर दास भी थे, श्री आचार्यजी महाप्रभु अपने श्री मुख से, दामोदर दास को दमला नाम से पुकारते थे | श्री आचर्य जी ने दमला से कहा - " यह पुष्टिमार्ग तुम्हारे लिए प्रकट किया हे |"
श्री आचार्यजी महाप्रभु ने पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए श्री गोकुल में पदार्पण किया | श्री गोकुल में गोविन्द घाट के ऊपर श्री महाप्रभुजी चबूतरेपर विराजते थे | वहाँ पर अब श्री आचार्यजी महाप्रभु की बैठक हे और वही पर श्री द्वारिकानाथजी का मन्दिर भी हे |
एक दिन श्री आचार्यजी गोविन्द घाट पर अवस्थित चबूतरे पर विराजमान थे, उसी समय उनके मन में विचार आया, " श्री ठाकुरजी ने हमें जीवों को 'ब्रह्म सम्बन्ध' कराने की आज्ञा की हे, जीव तो दोषवान हे और श्री पुरुषोत्तम तो गुण निधान हे, इस प्रकार दोषयुक्त जीव का गुण निधान श्री ठाकुरजी से सम्बन्ध होना कैसे सम्भव हो सकता हे?" इस चिन्ता से अभिभूत होकर श्री आचार्यजी बहुत आतुर हुए उसी समय श्री ठाकुरजी प्रगट हो गए और श्री आचार्यजी महाप्रभु से पूछा कि आप चिन्तातुर क्यों हो रहे हो? श्री आचार्यजी महाप्रभु ने कहा - "आप स्वयं जानते है कि जीव तो दोस्वन हे अतः उस जीव का आपसे सम्बन्ध होना कैसे सम्भव है?" श्री ठाकुरजी ने उन्हें आस्वस्त किया - "तुम जिन जीवों को ब्रह्म सम्बन्ध कराओगे उनको मैं अंगीकार करूँगा, तुम जीवो को 'नाम-दान' करोगे उनके समस्त दोष निवृत्त हो जायेंगे |"
यह प्रसंग श्रावण शुक्ला एकादशी को अर्धरात्रि में चरितार्थ हुआ | प्रातः काल द्वादशी के दिन श्री आचार्यजी महाप्रभु ने श्री ठाकुरजी को सूत की पवित्रा धारण कराई और मिश्री का भोग रखा | उन्ही अक्षरों के अनुसार श्री आचार्यजी महाप्रभु ने 'सिध्धांत-रहस्य' नामक ग्रन्थ की रचनाकी | प्रमानार्थ श्लोक है-
श्रावणस्यामले पक्षे एकादश्यां महानिशि |
साक्षाद् भगवता प्रोक्तं, तदक्षरशउच्यते ||
[ श्रावण शुक्लपक्ष कि महानिश (अर्धरात्रि) में साक्षाद् भगवान् ने जो आज्ञा की है उन्हें अक्षरशः कहा जाता है |]
उस समय श्री आचार्यजी महाप्रभु ने दमला से पूछा - "तुमने कुछ सुना?" तब दामोदर दास ने विनय पूर्वक कहा - " मैने वचन तो सुने किन्तु मैं कुछ समझा नहीं |" तत्काल ही श्री महाप्रभु ने कहा - " श्री ठाकुरजी ने मुझे आदेशित किया है, कि जिन जीवो को हम ब्रह्म सम्बन्ध कराएँगे उनको वे अंगीकार करेंगे और जीवों के सकल दोष निवृत्त हो जायेंगे | अतः ब्रह्म सम्बन्ध कराना आवश्यक है |"
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